मधुबनी के कलाकारों की ज़िन्दगी: मूकदर्शिता की गहराइयों में छिपे परतों को उघारता कोरोना




-अविनाश कर्ण
26 मई 2020

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प्रोडक्शन, सप्लाई और डिमांड जैसे विषयों पर मीडिया में इन दिनों इतनी चर्चाएं हुई है कि इस क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं से लगभग हम सभी वाकिफ हो गए हैं । कोरोना महामारी से सभी क्षेत्रों के साथ-साथ कलाजगत भी निश्चित तौर पर आर्थिक समस्याओं से बचा नहीं हैं। यहाँ मैं मिथिला कलाकारों से जुड़े उन पक्षों पर बात करूंगा जिस पर लोगों की नज़र कम ही गयी है। अक्सर लेखनों में देखने को मिलता है कि कला पर लिखते वक़्त लेखक कुछ चुनिंदा कलाकारों से बात करके हालात को जानने की कोशिश करते हैं। इनमें से अधिकतर बड़े नाम होते हैं और वो कई बार अपने कार्यानुसार ही जानकारी देते हैं।
मैंने दूर-दराज के गांव में किसी कमरे में बंद पड़े कुछ कलाकारों से बात करके उनसे यह जानने की कोशिश किया कि लॉकडाउन और सोशल-डिस्टेंसिंग की स्थिति में उन्हें क्या अनुभव हो रहा है।  साथ ही उनके जीवन से सम्बंधित कुछ पहलुओं पर भी बात होगी ताकि उनके वर्तमान हालात को नजदीक से समझा जा सके।

स्थानीय चित्रकला प्रतियोगिता में हिस्सा लेते मधुबनी के कलाकार (Photo credit: Jyoti Rani)

परिवार में बची अकेली सदस्य, 55 वर्षीय शकुंतला देवी उन हज़ारों गुमनाम कलाकारों में से एक हैं जिनका खर्च मिथिला पेंटिंग (अथवा मधुबनी पेंटिंग) बेच कर चलता है। जितवारपुर में रहने वाली शकुंतला के पति का वर्षों पहले देहांत हो चूका है। कोई भी संतान नहीं रहने से ये घर में अकेली ही बची हैं। पेंटिंग करके उसे अपने रिश्तेदारों के हाथों या लोकल बिचौलियों के हाथों बेच कर अपने खर्चे चला लेतीं हैं।  हालाँकि इस तरह की बिक्री से उन्हें पेंटिंग का न्यूनतम मूल्य ही मिल पाता है।
कलाकार शकुंतला देवी (Photo Credit: Goluji)

अभाव में जीवन यापन करने वाले कलाकारों से जब भी मैंने बात किया है तो मेरा निजी तौर पर अनुभव रहा है कि वे कमोबेस सहज स्वभाव के होते हैं। शकुंतला भी बड़ी सहजता से अपनी बात कहती हैं-

"कोरोना के वजह से जिनलोगों के पास पैसे हैं उन्हें भी आज इसकी जरुरत है और जिनके पास नहीं है उन्हें तो अभाव है ही।  बाहर नहीं निकल पाने की वजह से मैं पेंटिंग नहीं भेज पा रही हूँ और काम का ऑर्डर भी इसी वजह से नहीं मिल पा रहा है। जब तक कोई मांग नहीं करता है तब तक अपनी पूंजी लगाने का क्या मतलब है।  इसीलिए खाली वक़्त में घर के काम ही करती हूँ।  मोदी जी ने उपेंद्र महारथी संस्थान को कहा है कि वे कलाकारों से पेंटिंग खरीदें। लेकिन मुझे नहीं मालूम कि वो कब तक और किससे पेंटिंग खरीदेंगे। फिलहाल ये तो हमारे लिए एक भरोसा ही है। जब लॉकडाउन खुलेगा तभी तो कोई पटना जा कर संस्थान से अपनी पेंटिंग बेच पायेगा।  वैसे भी गांव में किसका पेट भरता है? "

कोरोना से पहले कमाई की स्थिति के बारे में मैंने जब इनसे पूछा तो इन्होने बताया कि उनके कमाई का कुछ भी निश्चित नहीं रहता। किसी महीने 500 रुपये तो कभी 5000 तक और कभी तो कुछ भी नहीं मिलता। लेकिन जब मांग अधिक रहती है तो खाना-पीना सब छूट जाता है। ऐसे में ये कभी-कभी कुछ भी खा कर दिन-रात पेंटिंग करती हैं।

शकुंतला देवी से मेरा परिचय करवाने वाले 45 वर्षीय कलाकार संजीव कुमार झा जिन्हें लोग गोलूजी के नाम से भी जानते हैं, मिथिला चित्रकला के तांत्रिक शैली में पेंटिंग करते हैं। इन्हें तांत्रिक शैली का ज्ञान इनके पिता स्वर्गीय कृष्णानंद झा जी से विरासत में मिली है। गोलूजी ने इस शैली में समकालीन प्रभाव को अपना कर अपने पिता के विरासत को एक कदम आगे बढ़ाया है।  कोरोना के इनके जीवन पर प्रभाव और तत्कालीन स्थिति पर बात करते हुए गोलूजी कहते हैं -
      कलाकार संजीव कुमार झा 'गोलूजी'  

"मुझे इस तरह के अनिश्चितता का कुछ ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा है। वैसे भी मैं मन अनुकूल ही पेंटिंग करता हूँ। हाँ, लॉकडाउन के वजह से मेरा मन मुझे कुछ अन्य कार्य करने को प्रेरित करता है।  मैंने वर्षों बाद अपने खेत में फसल लगाया था। लेकिन लम्बे अंतराल के बाद कृषि में आने से मैं भूमि को ज्यादा उपजाऊ नहीं बना पाया। फिर भी जो कुछ फसल आयी थी उसे हाल के बे-मौसम आयी बारिश ने तबाह कर दिया। आम से जो कुछ उम्मीद बची थी, ओलावृष्टि से हम उससे भी हाथ धो बैठे।  "

कोरोना महामारी से पैदा हुए अनिश्चितताओं का कलाकारों के भविष्य पर प्रभाव के बारे में गोलूजी आगे कहते हैं -

"भले डेढ़-दो महीने के बंदी का प्रभाव कुछ ख़ास नहीं पड़ा हो लेकिन कोई भी कलाकार, ख़ास कर ग्रामीण क्षेत्रों के कुछ वक़्त बाद असहाय महसूस करेंगे।  क्योंकि ये काम ऐसा भी नहीं है कि लॉकडाउन हटते ही दूकान खोल कर कमाई शुरू हो जाये। यहाँ अधिकतर कलाकार ऐसे हैं जो ऑर्डर आने के बाद ही कागज़-रंग पर पैसा खर्च कर पाते हैं। ऑर्डर आने, पेंटिंग बनने और पैसा मिलने तक डेढ़-दो महीने और लग जायेंगे। किसी का भी परिवार तीन-चार महीने ऐसे नहीं चल पायेगा।  तब तो और भी नहीं जब वो पहले से अभावग्रस्त जिंदगी जी रहे हों। "
मिथिला चित्रकला के तांत्रिक शैली में बने चित्र (कलाकार गोलूजी)

राँटी गाँव मिथिला चित्रकला की 'कचनी' (यानि रेखा आधारित) शैली के लिए विश्वप्रसिद्द है। दो 'पद्मश्री' और राष्ट्रीय एवं राज्य पुरस्कारों से सम्मानित महिला कलाकारों के इस गांव में एक परिवार स्वर्गीय यशोदा देवी का भी है। यशोदा देवी के अस्तित्व पर आज समय की माटी के कई परत चढ़ चुके हैं। गिने-चुने लोग भी इस कलाकार को शायद ही याद करते हैं। मेरा परिवार भी इन्हें केवल दो-तीन बातों से ही याद करता है - एक तो इन्होंने अमिताभ बच्चन के घर पर रह कर पेंटिंग किया था जब उनका लड़का अभिषेक बच्चन अपने बाल्यावस्था में थे और जिन्होंने यशोदा जी की पेंटिंग पर रंग गिरा कर उसे ख़राब कर दिया था। कुछ मौका मिलने पर भी यशोदा जी अपने डर की वजह से  कभी हवाई यात्रा नहीं की। अन्य बातें जो हमें उनकी याद दिलाती है वो ये कि अपने घर से अनाज को मोज़े में भर कर यशोदा जी एक बार हमारे घर आयीं थीं ताकि हम उसे पका कर उन्हें खाने को दें। मोज़े में अनाज भर कर लाने वाली बात पर कभी-कभी हम भले ही हँस पड़ते हैं। लेकिन उनकी तंगहाली और बुढ़ापे में पथरा चुकी आँखों को याद करते ही जहन से 'आह' निकल आती है।


कलाकार स्वर्गीय यशोदा देवी  (Photo Credit: Herve Perdriolle's Blog)

किराये के एक कमरे वाली झोपड़ी में यशोदा देवी अपनी भांजी कमला देवी के साथ रहा करती थीं। कारण था ये बाल-विधवा थीं जिन्हें अपने पति का चेहरा ठीक से याद तक नहीं था और उनकी भांजी यानि कमला जिनके दो बेटियों के जन्म देने के बाद, पति ने दूसरी शादी कर लिया था। दोनों मौसी-भांजी ने पेंटिंग से ही अपना जीवन यापन किया था और हमेशा के लिए राँटी में ही बस गयीं।
अपनी दोनो बेटी - ज्योति रानी और प्रीति कर्ण के साथ-साथ हज़ारों छात्रों, महिलाओं और बड़े-बड़े अधिकारी के बच्चों को मधुबनी पेंटिंग सिखाने वाली कमला देवी न कभी एक कलाकार और न ही एक कला-शिक्षिका के रूप में अपनी कोई जगह बना पाईं। महात्वाकांक्षी प्रवृति की यह महिला शायद गाँधी से भी तेज़ पैदल चला करती थीं। हमारे स्कूल के रिक्शा ने कभी भी रास्ते में, गति के मामले में इन्हें मात नहीं दे पाया था और हम छुट्टी के बाद घर लौट कर इनके चलने की तेज़ गति का नक़ल उतारा करते थे।
आज हम मजदूरों को जितना पैदल चलते देख रहें हैं उतनी दूरी कमला, हर दो-तीन महीने में पैदल माप लिया करती थीं और वो ऐसा तब तक करती रहीं जब तक वो अपने लिए एक घर बनाने के बाद अस्वस्थ नहीं हो गयीं। आज उसी घर में ये बिस्तर पर हाथ में प्लास्टर लगवाए आराम करती हुई मिल जाएंगी। इनकी दोनों बेटियां इनके साथ ही रहा करती हैं।
कलाकार ज्योति रानी

बड़ी बेटी ज्योति रानी (35 वर्षीय) से तीन दिनों की कोशिशों के बाद बमुश्किल मेरी बात हो पायी।  क्योंकि मैं बनारस में रहता हूँ। जब मैं आज की स्थिति के बारे में इनसे पूछा तो मुझे जानकर जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ कि दो पीढ़ियों के बाद भी अब तक इस परिवार में कुछ ख़ास परिवर्तन नहीं आया।
हम सब जिस तरह से आज कोरोना काल में लोक कलाकारों की परिस्थिति जानने और लिखने में रूचि ले रहे हैं उससे साफ़ जाहिर होता है कि हमारी मानसिकता समय और धारा की मारी हुई है। समय आते ही हम सब एक धारा में बहने लगते हैं।  कोरोना महामारी तो आज आयी है, ज्योति इससे थोड़ा पहले की बात बताती हैं -

" सरकारी ऑफिस में करीब 6 करोड़ का फण्ड आया था।  हमने रोड किनारे धुप में खड़े हो कर दीवालों पर पेंटिंग किया था। डीएम सर का तबादला हो गया। ऑफिस से पैसे मांगने गयी तो 'तबादला' कह कर टाल दिया गया। उनलोगों ने कहा, नए डीएम सर का पुराने प्रोजेक्ट्स से कोई वास्ता नहीं है। फिर भी पैसे आ जायेगा तो आपको मिल जायेगा। "
रेलवे स्टेशन पर बने भित्तिचित्र (कलाकार ज्योति व प्रीति)

मैंने हाल ही में अपने मधुबनी यात्रा के दौरान सड़क किनारे दीवालों पर ज्योति और प्रीति के कई चित्रों को देखा था। रखरखाव में अनदेखेपन से इनके चित्र  बरसात से धूमिल हो रही है। शायद डीएम सर का फण्ड जब तक आये तब तक इनके पास यह साक्ष्य भी नए बचे कि किस दीवाल पर इन बहनों ने क्या चित्रित किया था।

"राशन कार्ड नहीं बन पाया है। उधार मिलने में भी अब मुश्किल होने लगी है। शहर जा कर ट्यूशन भी नहीं पढ़ा सकते।  गांव में कुछ-एक बमुश्किल से स्टूडेंट मिल रहे हैं जिनके लिए भी 1000 -500 रुपये फीस देना मुश्किल हो गया है।  मान लीजिये गांव के लोगों को तकलीफ है।  लेकिन बिहार के एक सिविल कोर्ट के जज जो सैकड़ों किलोमीटर दूर से अपने सुरक्षाकर्मियों के साथ मुझसे पेंटिंग लेने राँटी गाँव आये थे, आने से पहले उनसे 5000 रुपये पर बात हुई थी। उनके पुलिस ने जिस अंदाज़ में मुझसे बात की, मैंने 4000 रुपये में सारा पेंटिंग दे दिया। मैं नहीं चाहती थी कि गाँव के लोग मेरे यहाँ पुलिस देख कर मुझे कोरोना ग्रसित घोषित कर दे। "

ज्योति अपनी बात कहते-कहते अपने रोते हुए नवजात बच्चे को चुप कराने लगती हैं। मैं फ़ोन पर इसके आगे कुछ नहीं बोल पाता हूँ। इसके आगे बस एक ही चीज़ समझ में आती है कि ख़बरों से अटे पड़े अपने मोबाइल की स्क्रीन को स्क्रॉल करते-करते हमने बातों कि गहराई में जाना छोड़ दिया है।


आज हर कोई किसी न किसी वजहों से निराश है।  लेकिन बक्शी टोल की 27 वर्षीय एक युवा कलाकार शिवानी झा की बातें हमारे लिए मुस्कुराने की कुछ गुंजाइशें छोड़ जाती है।
कलाकार शिवानी झा

"जब सारे ब्रश खराब हो गए तो काम करने का मन नहीं करता था। नए ब्रश तो मिलने से रहे।  मैंने ब्रश के फैले बालों को नेलकटर से काट दिया। पहले मुझे अंदाजा नहीं था कि पुराने-ख़राब ब्रशों को इस तरह फिर से नया बनाया जा सकता है। "

शिवानी की बातों से हमें एक प्रचलित मुहावरा याद आती है - जरुरत अविष्कार की जननी है तो जुगाड़ उसके पिता हैं। ये आगे कहती हैं -

"मैं मांग के अनुसार पेंटिंग करती रही हूँ। मेरी हमेशा यही कोशिश रही है कि मैं लोगों के कहे अनुसार काम करके उन्हें हमेशा खुश रख सकूँ। यही वजह है कि काम बढ़ते ही गए और मैं बहुत व्यस्त हो गयी। आज कोरोना के दौर में हमें सोचने का वक़्त मिला है। मैंने पलट कर वापस देखने की कोशिश किया कि मैं ये क्या कर रही थी। मैंने खुद के बारे में कभी सोचा ही नहीं कि मुझे क्या पसंद है। मैंने अब जा कर करियर के बारे में  नए परिप्रेक्ष्य में देखना शुरू किया।  मुझे तो इससे भी आगे जाना है और इसके लिए मुझे अपने पसंद की पेंटिंग करनी है।"

यह बातें भले ही किसी युवा कलाकार के तरफ से आ रही हो लेकिन कमोबेश सबको आज ये एहसास हो रहा है कि हमें अब कुछ नए दिशा में सोचने और करने की जरुरत है। क्या नए तौर तरीके से देखने, सोचने और करने के लिए हमें महामारी जैसे बैसाखी की जरुरत है, यह हमें आज ही सोचना होगा।

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